Lekhika Ranchi

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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएंःदो बहनें--2



दो बहनें भाग-२


शशांक कुड़मुड़ाकर ताश फेंककर उठ खड़ा होता। दोस्त फ़िक़रा कसते-'आहा, बेचारा अकेला बेहिफ़ाज़त मर्द जो ठहरा!' घर आकर शशांक स्त्री के साथ जो वार्तालाप शुरू करता वह न तो स्निग्ध भाषा में होता, न शान्त शैली में। शर्मिला चुपचाप सारी फटकार सुन लेती। क्या करे, ख़ामोश रहते भी तो नहीं बनता। अपने मन से वह इस आशंका को एकदम दूर भी नहीं कर सकती कि उसकी अनुपस्थिति में सब तरह की असम्भव विपत्तियाँ उसके पति के विरुद्ध षड़यंत्र रचती रहती हैं।


बाहर कोई आया है, शायद किसी काम से। इधर छिन-छिन में अन्तःपुर से काग़ज़ के चिरकुट आ रहे हैं, 'याद है न, कल तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं थी, आज सबेरे-सबेरे खा लो।' शशांक ग़ुस्सा करता है और फिर हार भी मानता है। बड़े दुःख के साथ एक बार स्त्री से कहा था, 'दुहाई है, चक्रवर्ती परिवार की गृहिणी की तरह किसी ठाकुर देवता का सहारा लो। तुम्हारी इतनी फ़िकिरमंदी मुझ अकेले के लिये बहुत अधिक है। देवता के साथ साझा रहने से वह सहज हो जायगी। चाहे जितनी भी ज़्यादती करो, देवता को कोई एतराज़ नहीं होगा लेकिन मनुष्य तो कमज़ोर जीव है।'


शर्मिला ने कहा, 'हाय हाय, एक बार काकाजी के साथ जब मैं हरिद्वार गई थी उस समय तुम्हारी क्या दशा हो गई थी, याद है?'


दशा अत्यन्त शोचनीय हो गई थी, यह बात शशांक ने ही ख़ूब नमक-मिर्च मिलाकर स्त्री को सुनाई थी। वह जानता था कि इस अत्युक्ति से शर्मिला को जितना अनुताप होगा उतना ही आनंद भी होगा। उस दिन के अमितभाषण का प्रतिवाद भला कौन मुँह लेकर करे! चुपचाप मान जाना पड़ा, सिर्फ़ इतना ही नहीं, उसी दिन सुबह उसे ज़रा सर्दी-सी लगी जान पड़ी, शर्मिला को इस कल्पना के अनुसार उसे दस ग्रेन कुनैन खानी पड़ी, ऊपर से तुलसी के पत्तों की रसवाली चाय भी पीनी पड़ी। आपत्ति करने का उपाय नहीं था क्योंकि एक बार ऐसी ही अवस्था में आपत्ति करके उसने कुनैन नहीं खाई थी और बुखार भोगना पड़ा था। यह घटना शशांक के इतिहास में अमिट अक्षरों में लिख गई है।


घर में आरोग्य और आराम के लिये जिस प्रकार शर्मिला की ऐसी सस्नेह व्यग्रता थी, बाहर शशांक की सम्मान-रक्षा के लिये भी उसकी सतर्कता उतनी ही सतेज थी। एक दृष्टान्त याद आ रहा है।


एक बार शशांक और उसकी स्त्री घूमने के लिये नैनीताल गए थे। पहले से ही उनका कम्पार्टमेंट सारे रास्ते के लिये रिज़र्व था। जंक्शन पर आकर गाड़ी बदलकर शशांक कुछ खाने-पीने की सामग्री लाने के लिये बाहर गया, लौटकर देखता है कि वर्दीधारी एक दुर्जनमूर्ति उन्हें बेदख़ल करने को उद्यत है। स्टेशनमास्टर ने आकर एक जगद्विख्यात जेनेरल का नाम लेकर बताया कि कम्पार्टमेंट असल में उसके लिये ही था, गलती से दूसरा नाम चिपका दिया गया था। शशांक ने आँखें फाड़कर देखा और जब संभ्रमपूर्वक दूसरे कम्पार्टमेंट में जाने की तैयारी करने लगा, तो शर्मिला गाड़ी में चढ़कर दरवाज़ा रोककर खड़ी हो गई; गरजकर बोली, 'देखती हूँ कौन आकर मुझे उतारता है, बुला लाओ अपने जेनेरल को!' शशांक उस समय तक सरकारी नौकर था, ऊपरवाले अफ़सर के जातिभाई से बचबचकर ख़तरे से दूर रहकर चलने का ही यह आदी था। हड़बड़ाकर बोला—'अरे भई, झमेला बढ़ाने से क्या फ़ायदा, गाड़ी में और भी तो जगह है।' शर्मिला ने इस बात पर कान ही नहीं दिया। आख़िरकार जेनेरल साहेब जब रिफ्रेशमेंट रूम से नाश्ता-पानी खत्म करके मुंह में चुरुट दबाए बाहर आए तो स्त्रीमूर्ति की उग्रता देखकर चुपचाप हट गए। शशांक ने स्त्री से पूछा—'जानती हो कितना बड़ा आदमी है?' स्त्री जवाब दिया जानने की गरज़ नहीं जो डिब्बा हमारा है उसमें वह तुमसे बड़ा नहीं।'


शशांक ने सवाल किया— "यदि अपमान करता तो?"


स्त्री ने जवाब दिया—"तो तुम किसलिये हो?"


शशांक शिवपुर का पासशुदा इंजीनियर है। घर की जिंदगी में शशांक की ढिलाई कितनी भी क्यों न हो, नौकरी में वह पक्का है। प्रधान कारण यह है कि उसके कर्मस्थान में जिस ऊँचे ग्रह की दृष्टि पड़ी थी वह वही वस्तु है जिसे चलती ज़बान में 'बड़ा साहब' कहते हैं। यह स्त्री-ग्रह नहीं। शशांक जिस समय एकृंग डिस्ट्रिक्ट इंजीनियर के पद पर काम कर रहा था उस समय आनेवाली तरक्की का चक्का एकाएक दूसरी और घूम गया। उसकी योग्यता को लांघकर कच्ची जानकारी होते हुए भी जिस भोगी मसोंवाले अंग्रेज़ युवक ने उसका आसन दख़ल किया, उसका अचिन्तनीय आविर्भाव अधिकारियों के सबसे बड़े अफ़सर के संपर्क और सिफारिश के बल पर हुआ था।


शशांक ने समझ लिया कि इस अर्वाचीन को ऊपर के आसन पर बिठाकर खुद नीचे बैठकर उसे ही सारा कामकाज संभालना पड़ेगा। अधिकारियों ने पीठ ठोंककर कहा, 'व्हेरी सारी मजुमदार, जितनी जल्दी होगा तुम्हारे लिये उपयुक्त स्थान जुटा देंगे। दरअसल वे दोनों ही एक ही 'फ्रामेसन् लाज' के अन्तर्गत थे।


तथापि आश्वासन और सान्त्वना के होते हुए भी सारा मामला मजुमदार के लिये अत्यंत नीरस हो उठा। घर आकर उसने छोटी-बड़ी सभी बातों में खटर-पटर करना अचानक उसकी नज़रों में आफिस-घर के कोने में पड़ा हुआ मकड़ी का जाला पड़ गया, चौकी पर पड़ा हुआ हरे रंग का पर्दा उसे बिल्कुल पसंद नहीं आता, यह भी अचानक याद आ गया। नौकर बरामदे में झाड़ दे रहा था, धूल उड़ रही है कहकर उसे ज़ोर की फटकार बताई। धूल ज़रूरी है, रोज़ ही उड़ती है परन्तु फटकार एकदम नई चीज़ थी।


इस असम्मान की खबर उसने स्त्री को नहीं बताई। सोचा, यदि उसके कानों तक बात जाएगी तो नौकरी के इस जाल में एक और उलझन पैदा कर देगी,—खूब संभव है बड़े अफसर से कड़वी भाषा में झगड़ा हो कर आवे। विशेष करके उस डोनाल्डसन पर तो उसे बहुत अधिक गुस्सा है। एक बार वह सर्किट-हाउस के बागीचे में बन्दरों का उत्पात दमन करने गया था और छर्रों से शशांक की सोला टोपी में छेद कर दिया था। कोई दुर्घटना नहीं हुई किन्तु होते कितनी देर लगती! लोग कहते हैं दोष शशांक का ही था, यह सुनकर शर्मिला का ग़ुस्सा और भी बढ़ उठा—डोनाल्ड्सन के ऊपर ही। ग़ुस्से का सबसे बड़ा कारण यह है कि बन्दर को निशाना बनाकर जो गोली दागी गई थी वह शशांक के ऊपर आ पड़ी, दुश्मनों ने इन दो बाताों का समीकरण करके खूब मख़ौल उड़ाया था।



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